मेरे एहसास
न जाने कितने एहसास दम तोड़ देते हैं, जब अपनी ही मिट्टी को लोग पराया बना देते हैं।
पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क जहां इंसान को इंसान नहीं समझा जाता, इंसान की बस इतनी ही कीमत है वहां , तुम मेरे हो जाओ नहीं तो किसी और के भी नहीं।
पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क जहां पाकिस्तानी होने के लिए यह जरूरी है कि, तुम इस्लाम के मानने वाले हो और तुम्हारे लफ्ज भी उर्दू हो, अगर नहीं, तो आप पाकिस्तानी नहीं।
कहीं नीला भरा था, तो कहीं भरा था केसरिया, उन सफेद बादलों को कैसे भूलूं मैं ,जो मिला रही थी आसमानी रंगों को, सुबह का सवेरा था, और वह रंगों में भीगा हुआ मुझे बार-बार देख रहा था मानो उसकी निगाहें कुछ कह रही हो, पर उसे क्या पता था मैं भी कुछ कहना चाहती हूं। मैं भी उसी रंग में रहना चाहती थी और क्या था दिल की हसरत पूरा करने की ख्वाहिश लिए हुए मैं भी आ गई उन गलियों में जहां रंगों में खुशियाँ खिलाया कर रही थी।
अचानक ख़ामोशी सी छा गई मुझे देखते ही, पिचकारियाँ रंग बरसाना बन कर गई, लबों पर तो कुछ था उनका, पर उनकी खामोशी बहुत कुछ कह रही थी, मैं मुस्कुराई और कह गई “रंग लगा दे मुझे भी कोई, परहेज नहीं है रंगों से, खयालों में तो हर रोज डूबा रहती हूं, कोई डूबा दे आज मुझे प्यार भरी रंगो की होली में”।
फिर क्या था अपने हाथों से मेरे गालों में रंग लगा दिया। एक पल में तो ऐसा लगा मानो अब कुछ पाना ही ना हो, पर शायद अनजान थी, उस हकीकत से जो मेरा सब कुछ छिनने वाला था। मैंने तो वो सारी जिंदगी जी ली पल भर में जो मेरी थी ही नहीं। यह ना जानते हुए कि अब कुछ रहेगा नहीं।
रंग खेल मुस्कुराते हुए घर को लौटी, अब्बा अम्मी मुस्कुराते हुए बोली ,बेटा तुम भी रंग खेलना सीख गई ,हम भी खेला करते थे कभी, पर अब रंगों से परहेज उन्हें जो यहां हुक्म करते हैं। कोई बड़ी आंखें कर देख रहा था मुझे, और सवाल आया कौन लगाया ये रंग? मैं डरी सहमी कुछ बोल ना सकी और वहां से चली गई।
न जाने कितने एहसास दम तोड़ देते हैं, जब अपनी ही मिट्टी को लोग पराया बना देते हैं।
पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क जहां इंसान को इंसान नहीं समझा जाता, इंसान की बस इतनी ही कीमत है वहां , तुम मेरे हो जाओ नहीं तो किसी और के भी नहीं।
पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क जहां पाकिस्तानी होने के लिए यह जरूरी है कि, तुम इस्लाम के मानने वाले हो और तुम्हारे लफ्ज भी उर्दू हो, अगर नहीं, तो आप पाकिस्तानी नहीं।
कहीं नीला भरा था, तो कहीं भरा था केसरिया, उन सफेद बादलों को कैसे भूलूं मैं ,जो मिला रही थी आसमानी रंगों को, सुबह का सवेरा था, और वह रंगों में भीगा हुआ मुझे बार-बार देख रहा था मानो उसकी निगाहें कुछ कह रही हो, पर उसे क्या पता था मैं भी कुछ कहना चाहती हूं। मैं भी उसी रंग में रहना चाहती थी और क्या था दिल की हसरत पूरा करने की ख्वाहिश लिए हुए मैं भी आ गई उन गलियों में जहां रंगों में खुशियाँ खिलाया कर रही थी।
अचानक ख़ामोशी सी छा गई मुझे देखते ही, पिचकारियाँ रंग बरसाना बन कर गई, लबों पर तो कुछ था उनका, पर उनकी खामोशी बहुत कुछ कह रही थी, मैं मुस्कुराई और कह गई “रंग लगा दे मुझे भी कोई, परहेज नहीं है रंगों से, खयालों में तो हर रोज डूबा रहती हूं, कोई डूबा दे आज मुझे प्यार भरी रंगो की होली में”।
फिर क्या था अपने हाथों से मेरे गालों में रंग लगा दिया। एक पल में तो ऐसा लगा मानो अब कुछ पाना ही ना हो, पर शायद अनजान थी, उस हकीकत से जो मेरा सब कुछ छिनने वाला था। मैंने तो वो सारी जिंदगी जी ली पल भर में जो मेरी थी ही नहीं। यह ना जानते हुए कि अब कुछ रहेगा नहीं।
रंग खेल मुस्कुराते हुए घर को लौटी, अब्बा अम्मी मुस्कुराते हुए बोली ,बेटा तुम भी रंग खेलना सीख गई ,हम भी खेला करते थे कभी, पर अब रंगों से परहेज उन्हें जो यहां हुक्म करते हैं। कोई बड़ी आंखें कर देख रहा था मुझे, और सवाल आया कौन लगाया ये रंग? मैं डरी सहमी कुछ बोल ना सकी और वहां से चली गई।
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